जीत कर भी मन क्यों हारे, ये बुझे बुझे चेहरे
• प्रदीप जायसवाल
UPDATE/ दैनिक जयहिन्द न्यूज़।
यह तो सच है कमलनाथ सरकार को काम करने का मौका मिला ही नहीं। 17 दिसंबर को सरकार बनी। 10 मार्च को लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लागू हुई। 23 मई को लोकसभा चुनाव का परिणाम आया और लगभग मई का महीना ऐसा ही चला गया।
अब सरकार को वक्त मिला है और लगता है कमलनाथ सरकार निश्चिततौर पर रफ्तार पकड़ लेगी।
कमलनाथ उम्रदराज होने के बावजूद ऊर्जावान बने हुए हैं और पूरी शिद्दत के साथ सरकार का कामकाज तेजी से बढ़ा रहे हैं। फिर भी जनमानस में एक सवाल खटक रहा है। ऐसा क्या हुआ कि उनकी टीम के चाहे मंत्री हो, विधायक हो या फिर वरिष्ठ पदाधिकारी हो, सरकार बनाकर भी लगता है जैसे मन हारे हुए हैं? यदि ये टीस लोकसभा चुनाव की हार की है, तो मातम और कब तक! बेशक! मध्यप्रदेश में बिजली और पानी का संकट गहराया हुआ है, लेकिन राजनीति कहीं उससे ज्यादा तेज हुई है। बीजेपी सशक्त विपक्ष और विरोधी दल की उसकी प्रकृति कांग्रेस पर सरकार होने के बावजूद कहीं ज्यादा भारी। क्यों मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं ये कांग्रेसी रणबांकुरे। जवाब विरोधी दल को भले ना दे, लेकिन जनता तक तो कम से कम कमलनाथ सरकार ने अब तक जितने भी वचन निभाए हैं, उन्हें तो ठीक तरीके से पहुंचा दें। भारतीय जनता पार्टी ने कमलनाथ सरकार की नाक में दम कर रखा है और संगठन से लेकर नौकरशाही जैसे सरकार के नाक, कान और आंख लगता है, सब के सब काम करना ही बंद कर चुके हैं या फिर काम करना ही नहीं चाहते हैं। …तो फिर बड़ी प्रशासनिक सर्जरी की तरह संगठन में ‘वक्त है बदलाव का’ तर्ज पर कायाकल्प कब। हैरत है संगठन का काम करने वाले फील्ड से ज्यादा कहीं मंत्रालय में सक्रिय और मंत्रालय में बैठने वाले बंगलों और बंगलों से ज्यादा कहीं अपने क्षेत्र में। जैसे, वे मंत्री बनने के बाद भी विधायक की मानसिकता से बाहर ही नहीं निकलना चाहते हों। मुख्यमंत्री को कहना पड़ रहा है। मंत्रियों को बताना पड़ रहा है, जरा लोगों की नब्ज टटोली जाए। क्या दिक्कत है, क्यों जनता परेशान है। लोग वाकई परेशान हैं, तो फिर सरकार भोपाल और मंत्रालय में क्या कर रही है। ये बात भी बेहिचक कि मंत्रियों के बंगलों पर जो भीड़ नजर आती है वो उस भीड़ का हिस्सा नहीं है, जो मूलभूत समस्याओं से रोज दो-चार हो रही है। यह भीड़ तो वह है, जो जनसेवा नहीं, धनसेवा के लिए बेजा गठबंधन को तैयार खड़ी है। जैसा कि कांग्रेस सोचती है, विरोधी दल की उठाई गई आवाज जरूर राजनीति की एक बड़ी रणनीति है, लेकिन जब जिम्मेदार कांग्रेसी ही मैदान से बाहर हो जाएं तो फिर यह दोष किसका! विधानसभा चुनाव जीते हैं, लेकिन लगता है जीतकर भी मन से हारे हारे हैं। 15 साल सत्ता का वनवास काटने के बाद जो खुशी सरकार बनने पर नजर आई, ना जाने अब वह कहां फुर्र हो गई। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक नहीं, चार बार अपनी सरकार की मजबूती का प्रमाण फ्लोर टेस्ट के जरिए दे दिया है। फिर भी पता नहीं क्यों, कांग्रेसी किसी अनजान सदमे में घुले जा रहे हैं। चिंतन आज की मौजूदा सरकार को लेकर कम और भविष्य की चिंता कहीं ज्यादा! जैसे, सरकार खुद अपनी सांसों से नहीं, वेंटिलेटर से एक-एक पल जी रही हो।
सरकार और सरकार के लोग खुद छोटे और टूटे मन से लोगों के बीच जाएंगे, तो फिर जवाब जनता को नहीं, सरकार को ही देना होगा। संगठन को बताना होगा कि आखिर यह मायूसी ऐसे क्यों छाई है! कहना ना होगा बीजेपी अपनी रणनीति में सफल है। पता नहीं, कांग्रेसी चेहरे क्यों बुझे बुझे और मुरझाए हैं।
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